गर्मी की व्याकुलता
कवि अशोक सिंह (रायबरेली )
स. अध्यापक (TGT Math)
बालक बालिका इंटर कॉलेज काझा मऊ उत्तर प्रदेश
अम्बर कृशानु बरसाता है
धरती तप तप कर तपती है
दिन गर्म तवे सा ज्वलनशील
रजनी भी आग उगलती है |
व्याकुल नर नारी पशु पंक्षी
सब फूल कली मुरझायी है
भीषण प्रचंड बिकराल रूप ले
ऋतु गर्मी की आयी है |
बह रहा स्वेद तन से धारा सा
मुखमंडल भी मलीन सा है
क्षण क्षण में अधर सूख जाते
पूरा तन दीन हीन सा है |
हवा हो गयी मौन कि जैसे
धरती से वह रूठी है
चलती भी है तो गर्मी ले
बेवफा दुष्ट और झूठी है |
बाहर निकलो तो तेज धूप
अंदर बैठो तो सदन गर्म
मन को कुछ आता समझ नही
समझेगा कैसे कोई मर्म |
युवतियाँ बांध कर के मुख को
सूरज की किरणों से बचती है
पर तन हो जाता स्वेद सनित
गर्मी से बहुत तड़पती है l
उन माओं का भी बुरा हाल
जो रोज किचन में रहती हैं
हर रोज बनाने को भोजन
भीषण गर्मी को सहती हैं |
मानव का इतना हाल बुरा
फिर अन्य जीव कैसे होंगे
हम तो हैं जतन बना लेते
पर वो कैसे रहते होंगे |
हे वर्षा देवी शीघ्र करो
सबको इतना तड़पाओ ना
सब व्याकुल है बिना तुम्हारे अब
जल्दी धरती पर आओ ना |
प्रेमी हैं तेरे सभी यहां
आलिंगन करने आओ अब
मर जायेंगे सब व्याकुल होकर
जीवन का नीर पिलाओ अब |
Very interesting subject, thank you for putting up.Raise range